मेटलर्जिकल उद्योगों की चुनौतियों पर केंद्रित पैनल चर्चा का हुआ सफल आयोजन…

भिलाई/ सेल – भिलाई इस्पात संयंत्र सहित विभिन्न औद्योगिक और शैक्षणिक संस्थानों के विशेषज्ञों की सहभागिता में “मेटलर्जिकल उद्योगों में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन – समस्याएँ एवं चुनौतियाँ” विषय पर एक उच्च स्तरीय पैनल चर्चा का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम इंस्टिट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स (इंडिया), भिलाई लोकल सेंटर तथा इंडियन इंस्टिट्यूशन ऑफ प्लांट इंजीनियर्स (छत्तीसगढ़ चैप्टर) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया गया। इस अवसर पर राज्य शासन एवं सेल-भिलाई इस्पात संयंत्र के वरिष्ठ अधिकारी, दोनों संस्थानों के सदस्यगण एवं दुर्ग-भिलाई के विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र-छात्राएं भी उपस्थित थे।
इस अवसर पर सेल- भिलाई इस्पात संयंत्र से मुख्य महाप्रबंधक प्रभारी (सिन्टर प्लांट-बीएसपी) अनुप कुमार दत्ता, महाप्रबंधक (सीईटी-बीएसपी) श्रीमती मंजू हरिदास, पूर्व महाप्रबंधक प्रभारी (एसईटी-बीएसपी) राजीव वर्मा, सहायक प्राध्यापक (मेटलर्जी एवं मेटेरियल विज्ञान विभाग, एनआईटी रायपुर) डॉ. सुभाष गांगुली, वरिष्ठ महाप्रबंधक (वेदांता एल्यूमिनियम लिमिटेड, लांजीगढ़, ओडिशा) अभिषेक दुबे, अध्यक्ष (आईआईपीई छत्तीसगढ़ चैप्टर) ए.एन. सिंह, तथा अध्यक्ष (आईईआई, भिलाई लोकल सेंटर) पुनीत चौबे ने अपने विचार साझा किए।
अपने संबोधन में अनुप कुमार दत्ता ने बताया कि इस्पात उत्पादन के प्रारंभिक वर्षों में स्लैग के निष्पादन में अनेक चुनौतियाँ थीं, किन्तु सीमेंट संयंत्रों द्वारा स्लैग के उपयोग ने इसका समाधान किया। उन्होंने बताया कि वर्तमान में स्लैग से रेत निर्माण की दिशा में शोध कार्य जारी हैं, जिससे नदी से रेत खनन कम होगा और नदियों का संरक्षण संभव हो सकेगा। उन्होंने यह भी कहा कि सेल द्वारा हाल ही में धान की पराली को सिन्टर संयंत्रों में बायोफ्यूल के रूप में प्रयोग किया जा रहा है, जिससे उत्तरी भारत में स्मॉग की समस्या कम करने में मदद मिल रही है।
बी.एस.पी. के पूर्व महाप्रबंधक प्रभारी राजीव वर्मा ने मेटलर्जिकल अपशिष्ट को फेरस और नॉन-फेरस श्रेणियों में विभाजित करते हुए बीओएफ (बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस) तथा ईएएफ (इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस) स्लैग के पुनः उपयोग की चुनौतियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि एक टन लोहा उत्पादन पर लगभग 0.6 टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है। उन्होंने हरित इस्पात तकनीकों विशेषकर हाइड्रोजन के प्रयोग को प्रोत्साहित करते हुए ठोस ईंधनों पर निर्भरता घटाने की आवश्यकता पर जोर दिया।
एनआईटी रायपुर के सहायक प्राध्यापक डॉ. सुभाष गांगुली ने मेटलर्जी प्रक्रियाओं में ह्जार्डस हज़ार्डस और नॉन-हज़ार्डस अपशिष्ट की पहचान एवं पृथक्करण पर बल दिया। उन्होंने भूजल और जलाशयों में हेवी मेटल से होने वाले दीर्घकालिक प्रदूषण पर चिंता व्यक्त करते हुए “जीरो सॉलिड डिस्चार्ज” मॉडल अपनाने का सुझाव दिया। उन्होंने उद्योगों, शैक्षणिक संस्थानों एवं अनुसंधान निकायों के बीच मजबूत सहयोग की आवश्यकता को रेखांकित किया।
अभिषेक दुबे ने एल्यूमिनियम उत्पादन से उत्पन्न अत्यधिक क्षारीय रेड मड के निष्पादन की प्रक्रिया को साझा किया। उन्होंने बताया कि वेदांता द्वारा स्थापित एक पायलट संयंत्र के माध्यम से रेड मड को सीमेंट निर्माण योग्य फ़िल्टर केक में बदला जा रहा है। साथ ही उन्होंने उल्लेख किया कि चीन द्वारा बॉक्साइट से सीधे एल्युमिनियम निष्कर्षण की नई तकनीक विकसित की गई है, जिससे ठोस अपशिष्ट का उत्पादन काफी हद तक कम हो गया है।
इस पैनल चर्चा का संचालन महाप्रबंधक (सीईटी-बीएसपी) श्रीमती मंजू हरिदास ने किया। उन्होंने वक्ताओं से ठोस अपशिष्ट निष्पादन की तकनीकी प्रगति और रणनीतियों पर सारगर्भित प्रश्न किए। आईआईपीई के अध्यक्ष ए. एन. सिंह एवं आईईआई के अध्यक्ष पुनीत चौबे ने धातुकर्म उद्योगों में अपशिष्ट के पुनः उपयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर अपने विचार व्यक्त किए और एकीकृत औद्योगिक प्रयासों का आह्वान किया।
कार्यक्रम का शुभारंभ मानद सचिव (आईईआई भिलाई) बसंत साहू द्वारा स्वागत भाषण से हुआ, जिसमें उन्होंने पैनल चर्चा के विषय की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए कहा कि भिलाई से लेकर ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल तक फैला मिनरल रिच कॉरिडोर देश की प्रमुख लौह, एल्युमिनियम और तांबा उत्पादन इकाइयों का केंद्र है।
उन्होंने कहा कि ठोस अपशिष्ट प्रबंधन अब केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि एक गंभीर आर्थिक विषय भी बन चुका है। कार्यक्रम का संचालन सुश्री निधि शुक्ला ने किया तथा सचिव (आईआईपीई छत्तीसगढ़ चैप्टर) पी. के. नियोगी द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया।
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